मिथिलेश के मन से: कचौड़ी गली सून कइलs बलमू - पहली किश्त

बूढ़ों के पास निपढ़ औरतों के इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता। वे झींकते हैं। वे खीझते हैं। वे अपनी चुप्पी पर सिर खुजाते हैं। वे बगलें झांकते हैं। वे उन्हें डपटते हैं- काम करो काम। गप्प-सड़ाका से पेट नहीं भरेगा। जो समझा नहीं पाते, वे डांट ही सकते हैं। पीटा- पीटी के दिन तो बीत गये, वरना वे लतिया भी सकते थे, जैसे माट्साब...

kachori

कचौड़ी गली सून कइलs बलमू

गांव- गिरांव में औरतें अक्सर यह गीत गाती दिख जाती हैं। धान की रोपनी के दिनों का तो उनका यह सदाबहार गीत होता है। निपढ़- गंवार औरतें नहीं जानतीं, यह कचौड़ी गली कहां है।

मुकदमेबाज बूढ़े- बुजुर्ग जानते हैं। जानते ही नहीं, बताते भी हैं- कचौड़ी गली पटना में भी है और बनारस में भी। इस गली में सिर्फ कचौड़ी ही मिलती है क्या?

बूढ़ों के पास निपढ़ औरतों के इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता। वे झींकते हैं। वे खीझते हैं। वे अपनी चुप्पी पर सिर खुजाते हैं।

वे बगलें झांकते हैं। वे उन्हें डपटते हैं- काम करो काम। गप्प-सड़ाका से पेट नहीं भरेगा। जो समझा नहीं पाते, वे डांट ही सकते हैं।

पीटा- पीटी के दिन तो बीत गये, वरना वे लतिया भी सकते थे, जैसे माट्साब लतियाया करते थे बचपन के दिनों में।

जब हम कोई सवाल दोबारा पूछ बैठते या मुंडी हिला देते कि समझ में नहीं आया गुरूजी.. एक बार फिर.. तो फिर पिटना ही अभीष्ट था और प्रारब्ध भी।

आदमी बनाते- बनाते इन गुरुओं ने हमें बैल बना दिया। गुरुजनों! माफ करना। हम तुम्हारी प्रतिभा के विलोम हो कर रह गये। तो भी ऐसे हिंसक योगदान के लिए हम हमेशा तुम्हारे ऋणी रहेंगे।

तुम्हारा वह अचूक फार्मूला हमने अपने बच्चों पर भी आजमाया लेकिन बात बनी नहीं। गुलेल उल्टी चल गयी, समीकरण गड़बड़ा गये, सब कुछ बूमरैंग कर गया।

बच्चों ने टाट- पट्टी का स्कूल नहीं देखा था, सो वे उस विरासत को जानते भी तो कैसे जानते जहां खालिस हमारी दुनिया थी और जिसका अलग हस्तिनापुर था? खैर। विषयांतर हो रहा है और यह नहीं होना चाहिए। आगे बढ़ें?

तो..उस खेत से बहुत दूर नहीं है वह मेंड़ जहां रोपनी चल रही थी या चल रही है। कुछ भी कह- मान लीजिए।  बिल्कुल कच्ची है यह मेंड़। बरसात के दिनों में इतनी फिसलनदार कि केले के छिलके पानी भरें।

गर्मी के दिनों में इतनी कड़क कि किसी ने  एक ढेला उठा कर भी सामने वाले को दे मारा तो पांच कोस दूर से श्रीराम डाक्टर को बुलाना पड़ेगा और श्रीराम डाक्टर के पास यह कहने के सिवा और कुछ नहीं बचेगा कि हालत ठीक नहीं है, इन्हें बाहर ले जाइए।

बाहर माने क्या?  बाहर माने कहां? बाहर माने बलिया, बनारस, गोरखपुर.. और क्या? और कहां? यह मेंड़ ही लाइफ लाइन है जो गांव की एक सरहद को दूसरी सरहद से और एक सीवान को दूसरे सीवान से जोड़ती है।

इस मेंड़ ने आज के सैकड़ों नौजवानों को अपने सीने पर साइकिल चलाना सीखते देखा है। साइकिल चलाना सीखने का पहला चरण होता है कैंची काटना सीखना।

सीट पर चढ़े बगैर साइकिल के हैंडल को इस चतुराई और श्रमसाध्य ढंग से थामना कि शवसाधकों तक की नानी मर जाए। लेकिन इस मेंड़ ने और भी बहुत कुछ देखा है।

इसने देखा है बच्चों को सयाना होते, जवान होते, बूढ़ा होते, जवानों को उनकी जवानी पर लानतें भेजते, पुराने दिनों को स्वर्णयुग मानते, उन दिनों की वापसी का इसरार करते और दुरभिसंधियों को परवान चढ़ते।

आसान नहीं होता है मेंड़ होना। चुप रहना और हाहाकार देखना। चुप रहना और  नयी फसील बनना। रोज- ब- रोज़ कटना और कभी इनके तो कभी उनके खेत का हिस्सा बनते जाना ताकि रकबा बढ़े, ताकि जोत बढ़े...

औरतें बोवाई में मसरूफ हैं। उनके हाथ बिरवे रोप रहे हैं।  आंखें आसमान तक रही हैं और कंठ बरस रहे हैं-कचौड़ी गली सून कइलs बलमू.. भइल मोसे कवन कसूर हो.. नजरिया से दूर  कइलs बलमू..।

बारिश हुई तो मालिक की चांदी हो जाएगी। झमाझम पानी के बीच बोवाई मालिक को अच्छी लगती है। वह इस बारिश को सगुन कहता है। कहता है- झूम कर फसल होगी इस बार।

धान के बिरवे रोपती औरतें ऊपर से गा भले रही हैं, वे भीतर से रो भी रही हैं। हम- आप इन कंठस्वरों में छिपे ताप- संताप को न समझ पायें तो यह हमारी सरदर्दी है।

ये औरतें समझना चाहती हैं, जानना चाहती हैं कि फसल तुम्हारी, खेत तुम्हारे, हल- बैल, ढोर- डांगर तुम्हारे, हमारा क्या? खटनी के सिवा क्या है हमारा तुमसे रिश्ता?  यह बरसात बीत जाए। मरद- मानुस घर लौट आये।  अब हम यहां नहीं रहेंगे। हम  कहीं और खटेंगे, हम हर हाल में कचौड़ी गली देखेंगे।

रुक जा रात, ठहर जा रे चंदा ( बरस्ता कचौड़ी गली) दूसरी किश्त

लगे हाथ यह भी
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इस पोस्ट पर बिल्कुल अभी -अभी ओबैद की टिप्पणी मिली है। ओबैद हमारे दानेदार दोस्त हैं। बहुत अच्छे, बहुत जानकार।  आप चाहें तो उन्हें चलती- फिरती लाइब्रेरी भी समझ सकते हैं। ओबैद फरमाते हैं- कचौड़ी गली आगरा में भी है और शायद लाहौर में भी।

होगी। ज़रूर होगी ओबैद भाई। लेकिन हम पूरबियों की आगरा या लाहौर से वैसी सीधी वाबस्तगी कभी नहीं रही जो बनारस या पटना से है। हमने तो आगरा देखा भी है, हमारे बुजुर्गों को तो सिर्फ सपने में ही आता रहा होगा मुमताज और शाहजहां की बेपनाह मोहब्बत का साक्षी वह शहर। शहर, जहां से इस देश की हुकूमत चली सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध तक।