नीलू की कलम से: 'कान कंवर सो बीरो मांगूं राई सी भोजाई'

मैं मन ही मन हंस दी क्योंकि मां से तर्क करने के लिए छप्पन इंच का सीना भी कम ही पड़ता है। खैर! बात आई गई हो गई लेकिन हर साल कार्तिक के दिनों में प्रभात में नियमित उसी राई का नाम गुणानुवाद सुन रही हूं। मां काती नहा रही हैं और लोक पक्ष के नियमानुसार काती का माहात्म्य गीतों की एक लंबी शृंखला के रूप में गाया जाता है

neelu shekhawat article on gangor

'कान कंवर सो बीरो मांगूं राई सी भोजाई'

गणगौर पूजती हुई मेरे घर की स्त्रियां गा रही थी कि मैंने तपाक से पूछ लिया- ये राई कौन थी?

"भगवान की सबसे प्रिय रानी"-मां बोली।हमने तो आज तक इस नाम की कृष्ण की किसी रानी का नाम नहीं सुना!

मैं मन ही मन हंस दी क्योंकि मां से तर्क करने के लिए छप्पन इंच का सीना भी कम ही पड़ता है।

खैर! बात आई गई हो गई लेकिन हर साल कार्तिक के दिनों में प्रभात में नियमित उसी राई का नाम गुणानुवाद सुन रही हूं।

मां काती नहा रही हैं और लोक पक्ष के नियमानुसार काती का माहात्म्य गीतों की एक लंबी शृंखला के रूप में गाया जाता है जिसमें लगभग दस पंद्रह गीतों का समावेश होता है।

शास्त्रोक्त कार्तिक माहात्म्य में भले शेषशायी विष्णु की पूजा का विधान हो किंतु लोक की स्त्रियों के लिए 'काती' में जिनकी महिमा गाई जाती है वे हैं राई(राय) दामोदर।

जहां तक मैं समझती हूं इस राय को ही राई बना दिया गया और सीताराम, राधाकृष्ण की तरह राई दामोदर बनाकर 'राई' नाम की रानी की भावना कर ली गई होगी। लोक की बलिहारी है।
मां यूं तो सदा ही ब्रह्ममुहुर्त में उठती हैं और उठते ही उनके भजन भी शुरू हो जाते हैं।

रात्रि के अंतिम प्रहर में मां के गीतों के शब्द और स्वरलहरियां इतने सुस्पष्ट सुनाई देते हैं कि हम सभी बहन-भाइयों को उनके गीत लगभग याद से हो गए हैं।

किंतु 'काती' स्नान में भजनों का सिक्वेंस थोड़ा बदल जाता है।
सबसे पहले गायी जाती है 'काती'-

"सात सखी मिल न्हाबा न चाली
सातां क हांथ मं झारी
थे तो म्हारे ल्हार लग्या गिरधारी"

नहा धोकर अपने ठाकुरजी (राई दामोदर) को जगाना है इसलिए गाना है जगावणो..
"जगावो ए नंदजी की राणी
सांवरिया रो मुख निरखण न आई"

 ठाकुरजी के पट खोलने को-
पट खोलो जी सांवरिया...
म्हे तो आई हो घनश्याम आपरा दर्शन करबा न..

और फिर आता है शृंखला का सबसे लंबा भजन-
नंद बनना
नंद बणूं नारायण देव....
हर हर गंगा हरजळा तिरबेणी न्हास्यां....

और फिर बारी आती है ठाकुरजी से वर मांगने की, चतुर नारी के मांगने का तरीका देखिए-
"कांई मांगूं सांवरा थोड़ी- थोड़ी बात को
पुष्करजी को न्हाबो मांगूं दर्शन दीनानाथ को
जाळी तो झरोखा मांगूं बैठबो महलात को
लीलड़ो सो घोड़ो मांगूं ऊपर जीन बंधात को
बैठन वाळो ऐसो मांगूं जाणे फूल गुलाब को
बाजरी को सोगरो न एक दही को बाटको
मायड़ तो म्हे बाप मांगूं भाई-भौजाई को झूमको
बेटा तो म्हे पोता मांगूं सांई सेतो राज को
दाल भात गेवां का फलका ऊपर बूरो भात को
गंगा जी का‌ दर्शन मांगूं ऊठबो परभात को"

मांगने में कोई कसर नहीं रखी पर यह कहकर कि थोड़ी-थोड़ी बातों के लिए क्या तो मांगू; फिर भी अगर देने का मन है तो इत्ता सा दे देना।

कहिए तो इनको 'भोली' भला किसने कह दिया?

वर मांगकर रुख किया है तुलछा का

हर हर तुलछा राम पियारी...
पथवारी और सूरज बाबा के बाद आर्त्यो (आरती) गा लिया है। लगे हाथ उस मार्ग को भी कृतज्ञता ज्ञापित करनी है जिस पर चलकर 'काती' नहाने वाली ठाकुरजी तक पहुंची है।
पंथल थारी पंथलड़ी..

इसके बाद  रसोई,थाळी, कलेवो और परकमा(परिक्रमा) के साथ काती के गीतों की पूर्णाहुति होती है।
लगभग एक घंटा हो चुका है और अब सींचने जाना है तुलछा,पीपळ,पथवारी और सूरज को और सुननी है काती की कहानी और अंत में
हे काती का राई दामोदर!

फलाने तो तूठे वैसे सबको तूठना (प्रसन्न होना)
घटती है तो पूरी करना, पूरी है तो परवान चढ़ाना और हां कार्तिक में राई नहीं खाई जाती, अरे भाई! राई  भगवान की रानी थी और कार्तिक मास की अधिष्ठात्री!!

आओ ए राई
थे म्हारे मन भाई
भोत करी अछुताई
मांगण हो सो मांगो म्हारी बाई..
अद्भुद है ना लोक?

(यह शेड्यूल घर में ही काती नहाने वालियों का है, ठाकुरजी के मंदिर के वाइब्स काती के प्रभात में अलग ही होते हैं जिसके बारे में फिर कभी..)

-नीलू शेखावत