नीलू शेखावत की कलम से: पश्चिम उगियो भाण...
मेरी दृष्टि में रवींद्र इस रोग से बचे हुए थे। उन्होंने और उनकी टीम ने जमकर परिश्रम किया और सेव उगा दिया। प्रैक्टिकल लोगों की सराउंडिंग भी कम मायने नहीं रखती।इस मामले में रवींद्र की किस्मत भी काम आई। उन्हें अच्छे और युवा दोस्त मिले जिन्हें चेहरे बदलने की बहुरूपिया कला में अभी महारत हासिल नहीं है। वे जहां दिखे वहीं रहे।
आखिर धुर पश्चिम से रवींद्र निकल आए हैं। जितना रोमांचक मुकाबला उससे कई अधिक रोमांचित करने वाली उनकी जीत ।
यह जीत अप्रत्याशित तो नहीं थी पर सशंकित तो हर कोई था चाहे वह समर्थक हों या विपक्षी क्योंकि उनके सामने धूप में धोळे हो चुके बाल थे, शताधिक वर्षों से जनता की आंखों में जमे हुए पार्टी निशान, एक मुश्त वोटों के लिए प्रसिद्ध वोटबैंक और ऐसा संगठन जिसकी कार्यशैली और नेतृत्व पर एकाएक सवाल उठा पाना संभव नहीं, यह नौजवान इन सबसे कैसे निपटेगा? किंतु यह युवक कमाल है!
उनके विरोधी निश्चिंत थे। भाटी के पास भाषण और भीड़ से ज्यादा कुछ है भी नहीं। भाषण को जनता ने अब सीरियस लेना बंद कर दिया है और भीड़ तो विपक्ष की दृष्टि में फर्जी है ही। जिस हिसाब से वह अपने खाने पीने के वेन्यू चेंज करने लगी है, उसका भरोसा करना मुश्किल है।
बाहरी लोग शिव में इकट्ठे होकर गाड़ियां घुमा रहे थे जिसका चुनाव और खासकर जीत से कोई लेना देना नहीं। रही सही कसर बहुकोणीय मुकाबले ने निकाल दी। बड़ी पार्टियां अपनी विरोधी पार्टी के बागी को देखकर खुश होती रही कि फलाने का वोट फलाना बांट लेगा और हम निकल जायेंगे। मुगालते से बुरा रोग दुनिया में कोई नहीं।
मेरी दृष्टि में रवींद्र इस रोग से बचे हुए थे। उन्होंने और उनकी टीम ने जमकर परिश्रम किया और सेव उगा दिया। प्रैक्टिकल लोगों की सराउंडिंग भी कम मायने नहीं रखती।इस मामले में रवींद्र की किस्मत भी काम आई। उन्हें अच्छे और युवा दोस्त मिले जिन्हें चेहरे बदलने की बहुरूपिया कला में अभी महारत हासिल नहीं है। वे जहां दिखे वहीं रहे।
खैर तर्क तथा विश्लेषण अपनी जगह और सम्मोहन अपनी जगह। भारत भर में उन्हें लोग जान रहे हैं, हर कोई उनकी बात करना चाहता है, विडियोज को मिलियंस व्यू। इस व्यक्ति में एक सम्मोहन है जिसका अर्जन उसने अपनी जुबान के बल पर किया है। उसकी जुबान उसकी अपनी है। मायड़ की मिठास उसे सबसे अलग करती है।उसने अपने प्रचार में उधारी जुबान का सहारा नहीं लिया। यही माध्यम उसे अपनों से जोड़ता है,उसकी बात से सचाई झलकती है और विश्वास भी।
रवींद्र ने अपनी जिद्द से न जमीं छोड़ी न जुबां। उन्होंने राजस्थानी भाषा आंदोलन के समय इच्छा जाहिर की थी कि यदि वह विधानसभा पहुंचते हैं तो राजस्थानी भाषा में शपथ लेना चाहेंगे। आज आंदोलन और मान्यता तो दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे पर रवींद्र अपनी जुबान के पक्के हैं। उनके अपने ही शब्दों में कहें तो लांठे हैं। सदन में उन्हें अपनी भाषा में सुनना सुखद होगा।
जनता भरोसा जताती है तो उम्मीदों के भारे भी लादती है। भाषा की मान्यता का भारा उन्हें हमारी ओर से भी। वह शिद्दत से लड़ेंगे तो ले पड़ेंगे क्योंकि 'हिंदू पड़े जठे हद है'।
नीलू शेखावत
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