नीलू की कविता: पालघर

पालघर

मैं कुछ ही क्षण देख पाई 
असहाय वृद्धों के मुख
निरूपाय कांपते गात
फिर कांप गए ये हाथ

प्राणों की भिक्षा मांगती आंखें
कैसी निरीहता कैसी कातरता
करुणा को भी करुणा हो आए
रुदन भी रोदन करने लग जाए

कितनी वीभत्सता कैसी क्रूरता
अब और कितनी होगी बर्बरता
जो ये साबित करेगी कि तुम
क्रूर हो,बर्बर हो,जाहिल हो

मैं क्षुब्ध हूं कहीं ज्यादा क्रुद्ध हूं
पर निश्शब्द हूं  कंठावरूद्ध हूं

— नीलू शेखावत