मिथिलेश के मन से: उस तवील याद को सलाम

सरसों के फूलों से भर देता हूं आंचल यह पीलापन रखना याद लो ऐसी वेला के लिए तुम्हें देता हूं मौसम का पहला उन्माद।।

सरसौं के फूल

सरसों के फूलों से भर देता हूं आंचल
यह पीलापन रखना याद
लो ऐसी वेला के लिए तुम्हें देता हूं
मौसम का पहला उन्माद।।
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कमउमरी में दो, सिर्फ दो किताबें पढ़ने को मिल जाएं तो कहना बड़ा मुश्किल है कि आपकी राह क्या होगी।

ज्यादा अंदेशा है कि आप वह निरंकुश प्रेमी/ प्रेमिका हो जाएं जिनका संविधान दुनिया के किसी भी संविधान और आईन को ठेंगे पर रखता है। ये दो किताबें हैं: चरित्रहीन ( शरतचंद्र) और गुनाहों का देवता ( धर्मवीर भारती)। 

असर इतना कि आप इन किताबों के पात्रों को जीने लगते हैं। सिर्फ प्रतीकों में नहीं, दैनंदिन जीवन में भी। सच्चीमुच्ची के जीवन में। कभी शरत बाबू के सतीश और उपेंद्र आपकी नींद पर हुकूमत करेंगे तो कभी ' गुनाहों का देवता' की सुधा आपसे पूछ रही होगी: ' बहुत थक गये हो..? मेरे पास आओगे चंदर?'

इन दो किताबों के अलावा एक शै और बेचैन रखती है उस वय में आपको.. और वह है वंशी और मादल की धुनों और पानियों पर नाचते मयूरपंखी गीत जो कहीं से, किन्हीं भी आवारा कंठस्वरों से कभी भी फूट सकते हैं और कहीं भी ले जा सकते हैं आपको। ऐसा ही मादक गीत है वह, जिसका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं।

इस गीत ने हमको लंबे वक्फे तक बेचैन रखा। यह गीत शतानंद उपाध्याय का है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। मूल रूप से मऊ ( पूर्वी उत्तर प्रदेश) के रहने वाले शतानंद जीवन के उत्तरार्द्ध में छत्तीसगढ़ में रह रहे थे। 

वहीं लगभग नब्बे साल की वय में उन्होंने आखिरी सांस ली। तीन- चार रोज पहले। माहेश्वर तिवारी, श्रीकृष्ण तिवारी, उमाशंकर तिवारी, उमाकांत मालवीय जैसों को शामिल कर शंभुनाथ सिंह ने नवगीत का जो रोडमैप बनाया था, उस नक्शे का एक ज़रूरी और अलिखित पन्ना थे शतानंद।

वह न सिर्फ गीतकार और उपन्यासकार थे, बल्कि पत्रकार भी थे। यह दीगर है कि वह कहीं भी, किसी भी क्षेत्र में  टिक कर नहीं रहे लेकिन उनमें प्रतिभा बेजोड़ थी। उन्हें सलाम। उनके हुनर को सलाम। उनकी जिद, उनके बांकपन, उनकी शोखी को सलाम। 

बहुत याद आयेंगे शतानंद। उस तकलीफदेह और तवील याद को सलाम.....!