नीलू की कलम से: केश सज्जा

गर्मियों की दोपहर में जब सब लोग सो जाते तो घर में उपलब्ध केश-सज्जा-सामान- रंगीन,मखमली, मोतियों वाले रबड़, बकल,चोटीले और क्लीपें सब एक साथ उपयोग में लेते और एड़ी तक छूती उस मनोमय चोटी को लहरा-लहराकर आनंदित होते।

केश सज्जा

कल मानस की एक चौपाई पढ़ते हुए मैं अचानक रुक गई, रुक क्या गई, दुखती रग पर पैर पड़ गया।

गोस्वामी जी ने फरमाया-"अबला कच भूषन..."

कलियुग में नारी के केश ही आभूषण है, केश का ही शृंगार होगा!

लगता यह कलियुग हमारा बचपन गुजरने के बाद ही आया होगा क्योंकि हमारे लाख चाहने पर भी हमें केश-सज्जा का अवसर नहीं मिल पाया।

सज्जा- शृंगार तो छोड़िए,केश रखने ही नहीं दिए गए। एक आंगळ बाल बढ़ते ही घर में सरगर्मी बढ जाती-"बाल कटाने हैं बाल कटाने है। "

साथ की लड़कियां हैप्पी कट,बेबी कट करवाती,कोई-कोई छोटी-सी पोनी तो कोई लंबी चोटियों में रंग-बिरंगे रबड़-फीते डालकर आतीं और एक हम थे कि हर पखवाड़े बकरियों की तरह बस 'कतर' दिए जाते।

हरिभाई नाई आज भी याद है,भूल भी कैसे सकते हैं,परिजनों के मंसूबों को मूर्त रूप देने वही तो आता था।

आंधी मेह चूक जाए पर हरिभाई नहीं चूकता। स्लिंग बैग की तरह कंधे पर रचानी झुलाता हुआ आ बैठता।

नाटी पतली देह पर आसमानी रंग का हाफ बाजू वाला कमीज और खादी की धोती पहने वह कपड़ों की बीबड़ी जैसा लगता था।

नारेळी जैसा छोटा-सा गोल पिचका चेहरा जिसमें अंदर तक धंसी हुई दो छोटी-छोटी चिरमी जैसी आंखें,छोटी किंतु तीखी नाक और ठुड्ढी उसके व्यक्तित्व को गहरी रेखाओं से रेखांकित करते थे।

उसकी जीभ और कैंची की धार समान होती थी पर कभी-कभी 'पहले मैं- पहले मैं' की स्थिति में भी।

हम उसके ब्लैक एंड व्हाइट मगर साबुत बालों को करीने से घुमाव देकर बनाए छाजे की तरफ निरीह भाव से देखते और वह बालों पर बार-बार हाथ घुमाकर मानों हमें चुनौती देता, 'दम है तो तुम भी रख लो!'

मगर हमारी किस्मत में एक-आध इंच से ज्यादा बाल कहां थे?

आंगन के बीचों बीच दो बोरियां बिछाई जातीं।

एक ओर कैंची कचकचाता हरिभाई और दूसरी ओर गर्दन झुकाए, हरिभाई की धोती का टुकड़ा गर्दन-कंधों पर लपेटे दीन-हीन बालक।

औपचारिकता के लिए पूछा जाता - "कैसी कटिंग करनी है?"

मगर हमारे बोलने से पहले आंगन में ढोलणी ढाळकर बैठे नाना कहते-"सगळा छांट दे। "

बकायदा दुकान जमाई जाती। एक रुमाल बिछाकर उस पर उस्तरा,रेजर और दो-तीन प्रकार की कैंचियां और कंघे रखे जाते। एक छोटी सी कटोरी में पानी भरवाया जाता।

इस सारी प्रक्रिया के दौरान पांच-सात गांवों की खबर मुखजबानी चलती रहती। किन जुजमानों के ठिकाने ताजिमदार और किनके गरीब-कंजूस है इसकी ब्योरेवार जानकारी दी जाती।

बाल कटाई को हमारे यहां 'सुंवार' कहा जाता है।

यह शब्द कदाचित् 'संवार' (संवारने) का अपभ्रंश हो मगर हमारी 'सुंवार' का 'संवारने' के साथ कोई अर्थेक्य न था क्योंकि इस प्रक्रिया के संपन्न होने के पश्चात 'लोढी' के अलावा कुछ बचता न था।  गुद्दी में तो उस्तरा ही फेर दिया जाता।

घर में तो यह 'लोढ़ी-अवतार' चल जाता,स्कूल में भी कमोबेश चला लेते क्योंकि वहां भी अधिसंख्य वर्ग हमारी पीड़ित-बिरादरी का ही था लेकिन इंतिहा तब हो जाती जब शादी-विवाह में जाने से पहले भी सुंवार करायी जाती।

मत पूछिए कि बॉब कट बालों पर हेयर बैंड लगाए लड़कियों को हम किन हसरत भरी निगाहों से देखते थे। हेयर बैंड हमारे पास भी था पर बाल किसके लाते?

कुंठा की क्षतिपूर्ति खेलते समय सिर पर तोलिए या लूगड़ी की चोटी गूंथकर करते।

गर्मियों की दोपहर में जब सब लोग सो जाते तो घर में उपलब्ध केश-सज्जा-सामान- रंगीन, मखमली, मोतियों वाले रबड़, बकल, चोटीले और क्लीपें सब एक साथ उपयोग में लेते और एड़ी तक छूती उस मनोमय चोटी को लहरा-लहराकर आनंदित होते।

बाल कटाने की कोई खास वजह नहीं होती थी,हर वजह में बाल कटाई फिट बैठती थी।

गर्मी में-"अणूतो झूंपो कंई काम को,गर्मी लागे। "

सर्दी में-"सी-जुकाम बेगो लागे। "

बरसात में-"खाज-खुजळी-जुआं हू ज्याय। "

मतलब, कुछ भी हो,पर सिर पर बाल न हो।

सुंवार का एक अन्य नाम 'हजामत' भी है। हालांकि हमारी 'हजामत' तब शुरू होती जब हम सुंवार कराने से मना कर देते।

- नीलू शेखावत