नीलू की कलम से: कठोपनिषद
वैदिक धर्म की मूल तत्व प्रतिपादिका प्रस्थान त्रयी में उपनिषद् मुख्य हैं।अन्य प्रस्थान गीता एवम् ब्रह्मसूत्र उसी के उपजीव्य है। इसे आध्यात्मिक मानस कहा जा सकता है जिससे विनि:सृत ज्ञान धाराएं इस पुण्य भूमि में मानव मात्र के एहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए प्रवाहमान है।
वैदिक धर्म की मूल तत्व प्रतिपादिका प्रस्थान त्रयी में उपनिषद् मुख्य हैं। अन्य प्रस्थान गीता एवम् ब्रह्मसूत्र उसी के उपजीव्य है।
इसे आध्यात्मिक मानस कहा जा सकता है जिससे विनि:सृत ज्ञान धाराएं इस पुण्य भूमि में मानव मात्र के एहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिए प्रवाहमान है।
उपनिषद् का भारतीय संस्कृति से अविच्छेद्य संबंध है।इनके अध्ययन से भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक रूप का सच्चा परिचय हमें उपलब्ध होता है।
ऋषियों ने जनकल्याण कि दृष्टि से अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को बड़े सहज तरीके से व्यक्त करने का जो कौशल्य प्रकट किया है, उसे इनकी मेधा का चमत्कार कहें या संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्य।
किस प्रकार गूढ़ और वैविध्य पूर्ण तथ्यों को अल्प शब्दों में समाहित कर गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ किया है। भारतीय वाड़्मय के अध्येता एवम् व्याख्याकार पाश्चात्य विद्वान पॉल डायसन ने एक व्याख्यान में कहा-"वेदांत अपने अविकृत रूप में शुद्ध नैतिकता का सशक्ततम आधार है,जीवन और मृत्यु की पीड़ाओं में सबसे बड़ी सांत्वना है। भारतीयों!इसमें निष्ठा रखो।"
इसी औपनिषदिक रत्नमाला का एक रत्न कठ उपनिषद् है जो कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत आता है। यह उपनिषद् कठ ऋषि के नाम से जुड़ा है। क=ब्रह्म, ठ=निष्ठा, अर्थात् ब्रह्म में निष्ठा उत्पन्न करने वाला उपनिषद्।
इसमें दो अध्याय व प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्ली है। इसका आरंभ भी बड़ा रुचियुक्त है। महर्षि अरुण के पुत्र आरुणि(ऋषि उद्दालक ) विश्वजित यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं जिसमें सर्वस्व दान का विधान है।
प्राचीनकाल में ऋषियों की सम्पत्ति गौएं ही हुआ करती थी सो ऋषि ने समस्त गौओं का दान कर दिया।किन्तु उन गौओंं में कुछ ऐसी भी थी जो कृशकाय हो चुकी थी, जो दुग्ध देने में असमर्थ थी और जो चल फिरने में भी अशक्त थी।
शस्त्रों में श्रेष्ठ वस्तु के ही दान का विधान है ऐसा ऋषिपुत्र नचिकेता भलीभांति जानता था इसलिए ऐसे निषिद्ध दान को देख उनके मन में क्षोभ उत्पन्न हुआ।
उन्होंने सोचा पुत्र भी पिता की सम्पत्ति होता है किन्तु पिताजी ने अशक्त गायों का त्याग करके ही अपने सर्वस्व दान की इतिश्री कर ली।(सच्चा दान तो तब माना जाता जब वो अपनी प्रिय वस्तओं का दान करते) इसी प्रयोजन से बालक ने अपने पिता से पूछा -" पिताजी! मेरा दान आप किसे करेंगे।"
दान वृत्ति में व्यस्त पिता ने इस ओर ध्यान नहीं दिया किन्तु बाल सुलभ आग्रह वश बालक बार बार यही प्रश्न पूछता रहा तो पिता ने आवेश में आकर कह दिया -" मैं तुझे यम को दान करूंगा।" किन्तु शीघ्र ही ऋषि ने अनुभव किया कि उनसे प्रमादवश बड़ी भूल हुई है।
गौतम वंशी नचिकेता अपनी कुलपरंपरा में सत्यनिष्ठा का महत्त्व समझाते हुए पिता से अपने वचन के लिए शोक न करने के लिए कहता है और साथ ही यमराज के पास जाने की आज्ञा भी प्राप्त कर लेता है।
तीन दिवस तक भूख प्यास को सहन करता हुआ यमद्वार पर यमराज की प्रतीक्षा करता है और यमराज से अनुग्रह प्राप्त कर तीन वरदान मांगने का अधिकार प्राप्त कर लेता है।
प्रथम वरदान में वह मांगता है कि उसके पिता पूर्ववत चिंतारहित एवं स्नेहयुक्त होकर उसे स्वीकार कर ले।
अपने दूसरे वर में वह स्वर्गप्राप्ति का साधनरूप अग्निविज्ञान का ज्ञान मांग रहा है। यमराज अग्निविद्या के ज्ञाता हैं और नचिकेता उत्तम अधिकारी,इसलिए यमराज यह दूसरा वरदान देकर एक आनुषांगिक वरदान भी देते है जिससे वह अग्नि विद्या 'नाचिकेत विद्या' के नाम से लोक में प्रसिद्ध होगी।
अपने तीसरे वरदान में वह आत्मजिज्ञासा करता है जिसके समाधान में आगे का सम्पूर्ण तात्पर्य निरूपण किया जाता है। प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली में ॐकार की महिमा का निरूपण 'ओमित्येकाक्षर ब्रह्म ' इत्यादि अन्यान्य मंत्रों द्वारा किया गया है। द्वितीय वल्ली में औपचारिक संवाद की समाप्ति है।
इसके अधिकांश मंत्र कुछ शब्दों के फेरबदल से गीता के श्लोकों से साम्य रखते हैं। मुण्डक उपनिषद् का 'द्वा सुपर्णा ' रूपक यहां 'ऋत पिबंतौ सुकृतस्य लौके' के रूप में पुनः उद्धृत हुआ है। मुण्डक की परा और अपरा यहां प्रेय और श्रेय के रूप में निरूपित हुई है।
आत्मानंरथिनिं विद्धि शरीरं रथमेव तु
बुद्धिं तु सरथिं विद्धिं मनः प्रग्रहमेव च
आदि मंत्रों में मनोनिग्रह की महिमा भी बताई गई है। पराधीन भारत में प्राण बल का संचार करने वाला आप्त वाक्य -' उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ' जिसका आह्वान अनेकानेक बार स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में किया,इसी उपनिषद् से है।
य एष सुप्तेषु जागर्ति... से परमात्मा का स्वरूप वर्णन कर दूसरे अध्याय की प्रथम व द्वितीय वल्ली में "एतद् वै तत्" से आत्मा परमात्मा के विविध पक्षों को पुनः निरूपित किया गया है।
अन्तिम वल्ली में नचिकेता को आत्म विद्या की संप्राप्ति एवम् इस विद्या का माहात्म्य बतलाया गया है।
उपनिषद् के ऋषि आत्मबोध को तो परमेश्वर के लिए भी आवश्यक मानते हैं। इसलिए यमराज परमात्मा से प्रार्थना करते हैं -
यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म.यत्परम्।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शाकेमहि।।
"हे परमात्मा! यज्ञ करने वालों के लिए जो सेतु के सदृश है,उस नाचिकेत अग्नि के (तथा) संसार को पार करने की इच्छा करने वालों के लिए जो अभयपद है;उस अविनाशी ब्रह्म को जानने में हम समर्थ हों।"
इति।
नीलू शेखावत