प्रदीप बीदावत की कलम से: यह समय तर्क की तलवारें भांजने का नहीं

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Highlights

अहमदाबाद विमान हादसे ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह समय राजनीतिक बयानबाज़ी या मीडिया की सनसनी का नहीं, बल्कि मौन, मर्यादा और मनन का है।

265 जिंदगियाँ चली गईं — अब ज़रूरत है संवेदना, शांति और संतुलन की। आइए, इस पल को गंभीरता से समझें।

नमस्कार।

यह समय तर्क की तलवारें भांजने का नहीं है।
यह क्षण किसी भी किस्म की रस्साकशी या राजनीतिक बाण-वर्षा का नहीं है।

अभी जो सबसे ज़रूरी है...
वो है — मौन, मर्यादा और मनन।

आज जब हम अहमदाबाद की उस दिल दहला देने वाली विमान त्रासदी के सामने खड़े हैं,
तो ज़रूरत है — श्रद्धांजलि की... संवेदना की... और संजीदा सोच की।

मगर अफ़सोस...

हमारा सोशल मीडिया — उत्तेजना की फैक्ट्री बन चुका है।
मुख्यधारा का मीडिया — मानो हर दुर्घटना को रंगमंच में बदल देना चाहता है।

एक हादसा हुआ... और वह उनके लिए बन गया एक प्रहसन,
जिसमें बैकग्राउंड स्कोर है, विज़ुअल इफेक्ट हैं, और टीआरपी की हवस है।

इसी बीच, 265 जिंदगियाँ ख़ामोशी से इस दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं।
एक-एक परिवार का सूरज बुझ गया है।

यह कोई मामूली दुर्घटना नहीं है।

यह उस बिंदु का उदाहरण है — जहाँ सर्वोत्तम तकनीक और प्रशिक्षित मानवीय कौशल भी...
विवश हो जाते हैं।

फिलहाल, बोइंग 787-8 विमान के डिज़ाइन की खामी हो,
या उड़ान संचालन में कोई चूक... या फिर कोई साज़िश —
जाँच पूरी होने तक निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी।

मगर दुर्भाग्य से, हमारे मीडिया मंचों पर
‘निष्कर्ष’ अब तथ्य के पहले आते हैं।

और तब आता है — हमारा तथाकथित जन-विश्लेषक समाज।

हर कोई एक चलता-फिरता विश्वविद्यालय बन चुका है।
हर फ़ोन में ज्ञान का यूट्यूब, हर उंगली में तर्क का ट्वीट...

बरसों की साधना से अर्जित किया गया ज्ञान...
अब हंगामों की भीड़ में गुम हो रहा है।

त्रासदियाँ चुपचाप आती हैं... मगर शोर बहुत पीछे छोड़ जाती हैं।

यह हादसा हममें से कई को
1988 की उसी ज़मीन पर गिरी इंडियन एयरलाइंस की उड़ान की याद दिला गया होगा,
जहाँ 133 लोग मारे गए थे।

या 1996 में चरखी दादरी के आसमान में
दो विमानों की टक्कर में मरे गए 349 लोगों की त्रासदी को...
फिर से कुरेद गया होगा।

अहमदाबाद की यह दुर्घटना —
भारत के विमानन इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी बन गई है।

और इसीलिए...
प्रधानमंत्री मोदी का वहाँ पहुँचना —
केवल राजनीतिक औपचारिकता नहीं,
बल्कि संवेदना का अनिवार्य धर्म था।

मैं कहूँगा, राहुल गांधी को भी जाना चाहिए था।
गुजरात किसी एक दल का नहीं है। वह सबका है।

ऐसे समय में — ज़मीनी उपस्थिति...
कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने की भावना का प्रतीक होती है।

जो लोग कैमरे के कोण गिन रहे हैं,
उन्हें यह समझना चाहिए — दृश्य की गहराई हमेशा दृश्य में नहीं होती।

और यह समय तो बिल्कुल भी नहीं है —
उन पुराने सवालों को खींचकर लाने का...
कि “मणिपुर में क्यों नहीं गए?”
“रेल दुर्घटनाओं में क्यों नहीं पहुँचे?”
“दस साल में इतने हादसे हुए, तब कहां थे?”

सवाल अपनी जगह ज़रूरी हैं।
मगर हर सवाल का एक सही समय होता है।

अनुचित समय पर उठाया गया सवाल —
अपने ही महत्व को खा जाता है।


हम यह न भूलें कि
भारत में हर साल साढ़े ग्यारह लाख उड़ानें होती हैं।

अहमदाबाद से ही एक लाख उड़ानें सालाना।
फिर भी, प्रति दस लाख उड़ानों में विमान दुर्घटनाओं का औसत — एक से भी कम।

यह सच्चाई है।

1945 से अब तक —
भारत में 93 विमान हादसे हुए हैं, और 2,319 लोगों की मौत।

अमेरिका, रूस, कनाडा, ब्राज़ील... सब हमसे कहीं आगे हैं इन आंकड़ों में।

यह कोई बहाना नहीं है —
बल्कि संतुलन की पुकार है।

आज —
265 जिंदगियों की चिता के धुएँ में
सवालों की चिंगारियाँ न मिलाइए।

आज —
जो खो गए, उनके लिए
मौन प्रार्थना करिए।

उनके परिजनों के दुःख को
अपने अंतःकरण में जगह दीजिए।

यह समय टीआरपी की रेस का नहीं है।
यह समय ‘ट्रेंडिंग’ में आने की होड़ का नहीं है।

यह समय है —
संवेदना को फिर से सीखने का।

अगर हम हर त्रासदी को तमाशा बना देंगे...
तो यक़ीन मानिए —
असली त्रासदियाँ तो अभी बाकी हैं।

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