नीलू की कविता: रिश्ता, संबंध

रिश्ता, संबंध

रिश्ता? संबंध ??
जन्मो जन्म का स्नेह बन्ध???
ना ना यहां चलता है
 सिर्फ अनुबंध
सौदेबाज़ी कह दीजिए
विनिमय होता है संतानों का
बलि तो अनिवार्य है
पिता प्रस्तुत है
रिश्ते एक तरफ
स्वार्थ एक तरफ
स्वार्थ वंशवृद्धि का
स्वार्थ लोकलज्जा का
स्वार्थ अहंकार पूर्ति का
स्वार्थ सामाजिक प्रतिष्ठा का
विवाह और संस्कारों के यूप से बन्धी  संतानें
रोती हैं चिल्लाती हैं भाग जाती हैं
फिर अवश हो बन्ध जाती हैं
यही इनकी नियति है
पर स्वार्थ अब भी क्षुधित है
अपेक्षा का वितान खुला 
अपेक्षा शांति की
संपत्ति की
संतति की
संतान फिर तड़पी छटपटाती
विवश हो करती है फिर आपूर्ति
स्वार्थ जिह्वा अब भी लपलपा रही है
पर संतान कब तक भोग बने
वितृष्णा घृणा और कटुता से भरकर
संस्कार होने लगते है शनेः शनेः विश्रृंखल
अब इसे जो नाम दीजिए
कलियुग
पापाचार
दुष्टाचार
बढ़ना तो है
क्यूंकि
लोकलाज के यज्ञ में
संस्कारों के यज्ञ यूप से बन्धी
संतान की दशा शुनःशेप सी है
और यहां का हर पिता अजीगर्त

- नीलू शेखावत