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हमारी पीढी के भाग्य में ये दिन न आ पाए क्योंकि तब तक हम प्रगतिशील हो गए। उत्सव और उत्साह की बलि देकर हमने प्रगति चुनी।
अन्य कई राज्यों में अब भी यह परंपरा निभाई जाती हैं पर राजस्थान में तो जैसे हाथोंहाथ समाजवादी, पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनने की हौड़ लगी थी।
इस हौड़ ने हमसे हमारे उत्सव छीने, हमारी परंपरा छीनी, हमारे रंग छीने, हमारी पहचान छीनी, हमारे देव छीने, हमारे ग्रंथ छीने।
कहाँ तक बताएं- भाषा और इतिहास तक छीनकर अपनी मिट्टी से पराया कर दिया। राजस्थानी डिंगल में गणेश वंदना सुनिए, आपका रोम-रोम पुलकित न हो जाए तो कहिये।
कहीं के बाप्पा, कहीं के दादा, कहीं के राजा पर हमारे तो रणतभँवर के राजवी। हम उन्हें जब भी बुलाते हैं, रणतभँवर से ही बुलाते हैं। जाहिर है वे भी वहीं पर बिराजते हैं इसलिए हमारा उनसे पत्र व्यवहार भी उसी पते पर होता है।
राजस्थान का हर व्यक्ति चाहे वह यहाँ रहे या देश-विदेश, अपने यहाँ होने वाले हर शुभ काम में प्रथम निमंत्रण रणतभँवर के नाम लिखता है और इस विश्वास के संग भेजता है कि वे इसे अवश्य स्वीकार करेंगे और आयेंगे भी।
धन या सुविधा के अभाव में इन बड़े राजाजी के दरबार में हाजरी भले ही न लगा पाएं पर चिट्ठी-पतरी तो भारतीय डाक के चलते संभव है ही।
डाकिया उनके नाम की चिट्ठी बड़े प्रेम और आदर से लेते हैं और तत्परता से रणतभँवर पहुँचाते हैं। पुजारी जी सेवाभाव से उसे गणेश जी को बांचकर सुनाते हैं। (ऐसा सुना है)
मैं सोचती हूँ- डिजिटल युग में पत्र लिखना जब बंद ही हो गया है, मनीओर्डरों का काम ओनलाइन बैंकिंग ने ले लिया है, तब भारतीय डाक कुछ पार्सलों के सहारे खुद को कब तक जीवित रखेगी?
डाक बंद हुई तो हमारा एक बड़े घर से राब्ता बंद न हो जायेगा? संभव है ऐसी स्थिति में गणेश जी को स्मार्ट फोन थमा दिया जाए, मेल या एसेमेस सब जगह चलेंगे तो रणतभँवर भी चलेंगे ही।
खैर यह तो भाव और विनोद है। गणाधिपति गणपति तो सर्वदा सर्वत्र विराजमान हैं।
परमाणु स्वरूपेण केचित्तत्र गणेश्वरा:।
केचित्तत्रसरेणुभि: समाने देहधारका:।।
उन्हें पृथक पृथक देश कालों में चाहे भिन्न भिन्न नाम रूपों से जाना जाता हो पर उनके प्रति सबका श्रद्धाभाव एक-सा है। शैव और शाक्तों की तरह एक समय में गाणपत्य संप्रदाय भी अपने परम वैभव पर रहा। मगर हम सनातनी किसी भी विचार या विग्रह को एक परिधि में कब बंधा रहने देते हैं। गणपति को सबने सिर आँखों लगाया। हमने सब देवों का मेल करा दिया अपने छोटे से पूजा के कोने में।
देव तो देव, हमने सगुण- निर्गुण को भी एक कर दिया। बना ले जिन्हें अपने बाड़े बनाने हों। यहाँ तो निर्गुण संगत में भी पहला भजन 'महाराज गजानन आओ जी' गाया जायेगा। पहले गणपति पीछे सब।
घर के प्रथम द्वार पर गणपति, ग्रंथ के पहले पृष्ठ पर गणपति, शास्त्र के मंगलाचरण में गणपति और लोक जीवन की कथा, गाथा और गीतों में गणपति हैं।
गणेश चतुर्थी राजस्थान में 'चतड़ा चौथ' के नाम से जानी जाती है। यह दिवस ऑफिशियल बाल दिवस हुआ करता था जिसकी बालक उत्साहित होकर प्रतीक्षा करते।
घरवाले नये कपड़े सिलवाते बच्चों के लिए। उनके लिए कुछ न कुछ मीठा बनता, घी गुड़ घूघरी से बेसन के लड्डू तक हैसियत अनुसार।
खाती के यहाँ लकड़ी के डांडिये घड़वाए जाते। बच्चे अपने डांडिये सजाते- कोई डोरी से, कोई रंगीन कपड़ों से तो कोई मांडनों की कारीगरी से।
चतड़ा चौथ की सुबह गाँव भर के बालक इकट्ठे होकर हाथ में झोली लिये घर-घर जाते और गाते-
चतड़ा चौथ भादूड़ो,
दे दे माई लाडूड़ो...!
आधौ लाडू भावै कौनी,
सापतौ पाँती आवै कौनी..!!
सुण सुण ऐ गणपत की माँय,
थारो गणपत पढ़बा जाय..!
पढ़बा की पढ़ाई दै,
छोरा नै मिठाई दै..!!
आळो ढूंढ दिवाळो ढूंढ,
बड़ी बहु की पैई ढूंढ..!
ढूंढ-ढूंढा कर बारै आ,
जोशीजी कै तिलक लगा..!!
लाडूड़ा मै पान सुपारी,
जोशीजी रै हुई दिवाळी..!
जौशणजी नै तिलिया दै
छोरा नै गुड़धाणी दै,
ऊपर ठंडो पाणी दै..!!
एक विद्या खोटी,
दूजी पकड़ी चोटी..!
चोटी बोलै धम धम,
विद्या आवै झम झम..!!
लोग प्रसन्न होकर गुड़-धाणी डालते जिसे एक साथ बैठकर बांट-चूण्टकर खाया जाता।
हमारी पीढी के भाग्य में ये दिन न आ पाए क्योंकि तब तक हम प्रगतिशील हो गए। उत्सव और उत्साह की बलि देकर हमने प्रगति चुनी।
अन्य कई राज्यों में अब भी यह परंपरा निभाई जाती हैं पर राजस्थान में तो जैसे हाथोंहाथ समाजवादी, पंथनिरपेक्ष गणराज्य बनने की हौड़ लगी थी।
इस हौड़ ने हमसे हमारे उत्सव छीने, हमारी परंपरा छीनी, हमारे रंग छीने, हमारी पहचान छीनी, हमारे देव छीने, हमारे ग्रंथ छीने।
कहाँ तक बताएं- भाषा और इतिहास तक छीनकर अपनी मिट्टी से पराया कर दिया। राजस्थानी डिंगल में गणेश वंदना सुनिए, आपका रोम-रोम पुलकित न हो जाए तो कहिये।
मैं विषय से दूर जाऊँ, इससे पहले चतड़ा चौथ की सभी को मोकळी शुभकामनाएं।
- नीलू शेखावत