निर्देशक/लेखक: करण शर्मा
कलाकार: राजकुमार राव, वामिका गब्बी, सीमा पाहवा, संजय मिश्रा, ज़ाकिर हुसैन, रघुबीर यादव
अवधि: 121 मिनट
रेटिंग: ★★★★☆ (3.5/5)
अगर आप ऐसी फिल्मों के चाहने वाले हैं जो दिल से कही गई बातों को सीधे दिल तक पहुंचाती हैं, तो ‘भूल चूक माफ़’ आपके लिए एक आदर्श विकल्प है। यह फिल्म न किसी शोर-शराबे की मोहताज है, न भारी-भरकम संवादों की। यह रिश्तों, माफ़ी और ज़िंदगी की सादगी को इतनी सहजता से दर्शाती है कि हर दृश्य किसी न किसी तरह आपकी अपनी कहानी सा महसूस होता है।
कहानी की झलक:
बनारस की तंग गलियों और पुरानी हवेलियों की पृष्ठभूमि में बसी यह कहानी नाटकीयता से नहीं, बल्कि अपनी सादगी और सच्चाई से दर्शकों का दिल जीतती है। फिल्म में रिश्तों की मिठास, ग़लतियों की गुंजाइश और माफ़ी की खूबसूरती को बेहद आत्मीयता से दर्शाया गया है। करण शर्मा की लेखनी और निर्देशन इसे एक खास अनुभव बना देते हैं।
किरदार और अभिनय:
राजकुमार राव एक बार फिर साबित करते हैं कि वह साधारण किरदारों में भी असाधारण गहराई ला सकते हैं। 'रंजन' के रूप में वह हर उस आम इंसान की तस्वीर हैं जो ज़िम्मेदारियों और ख्वाहिशों के बीच जूझता है। वामिका गब्बी अपने पहले हास्यप्रधान किरदार में पूरी तरह जंचती हैं—उनकी मासूमियत और संवाद अदायगी दिल जीत लेती है। सीमा पाहवा, संजय मिश्रा और रघुबीर यादव जैसे दिग्गज कलाकारों की मौजूदगी ने कहानी को और भी जीवंत बना दिया है।
भावनाओं की परतें:
इस फिल्म में न कोई बड़ा सस्पेंस है, न कोई ज़ोरदार मोड़। और शायद यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। यह उन भावनाओं को छूती है, जिन्हें हम रोज़ की ज़िंदगी में अनदेखा कर देते हैं—अपनेपन की झिझक, माफ़ी मांगने का संकोच और दूसरा मौका देने की हिम्मत। फिल्म हमें यह महसूस कराती है कि छोटी-छोटी बातों में भी कितनी बड़ी संवेदनाएं छुपी होती हैं।
संगीत और तकनीकी पक्ष:
'टिंग लिंग सजना' और 'चोर बाज़ारी फिर से' जैसे गीत फिल्म की आत्मा को गहराई से उभारते हैं। इन गानों में बनारस की मिठास और देशीपन की खुशबू साफ झलकती है। सिनेमैटोग्राफी खासतौर पर प्रशंसनीय है—शहर की गलियों, छज्जों और घरों को बेहद खूबसूरती से कैमरे में कैद किया गया है। एडिटिंग चुस्त है और बैकग्राउंड स्कोर भावनात्मक लहरों को प्रभावी रूप से संप्रेषित करता है।
अंतिम विचार:
‘भूल चूक माफ़’ एक सच्ची, सरल और आत्मा को छू लेने वाली फिल्म है। यह फिल्म आपको मुस्कुराने, ठहरकर सोचने और रिश्तों की गरिमा को फिर से समझने पर मजबूर करती है। करण शर्मा का यह निर्देशन, मैडॉक पिक्चर्स और शारदा कार्की जलोटा के साथ दिनेश विजन की प्रस्तुति में, एक पारिवारिक मनोरंजन के साथ-साथ आत्मिक अनुभव भी है।
यह उन फिल्मों में से एक है जो शोर नहीं मचातीं, लेकिन गहरे तक असर छोड़ जाती हैं—और बार-बार।